एलआईसी ने 1956 से अपनी नीतियों के माध्यम से वित्तीय सुरक्षा प्रदान करते हुए भारत में एक विश्वसनीय संस्थान के रूप में स्थापित किया है। 30 करोड़ से अधिक सक्रिय नीतियों के साथ, यह लाखों लोगों के लिए एक विश्वसनीय विकल्प बना हुआ है।
India
-Oneindia Staff
भारत
में
अगर
किसी
संस्था
पर
सबसे
गहरा
भरोसा
है,
तो
वह
है
एलआईसी
—
यानी
भारतीय
जीवन
बीमा
निगम।
यह
सिर्फ़
एक
बीमा
कंपनी
नहीं,
बल्कि
करोड़ों
भारतीयों
के
सपनों
और
सुरक्षा
का
प्रतीक
है।

छोटे
शहर
के
शिक्षक
से
लेकर
महानगर
के
पेशेवर
तक,
हर
कोई
अपने
भविष्य
की
गारंटी
के
रूप
में
एलआईसी
को
देखता
है।
किसी
की
बेटी
की
शादी
हो,
किसी
का
मकान
बनाना
हो
या
सेवानिवृत्ति
का
सहारा
—
हर
जगह
एलआईसी
मौजूद
है।
जैसे
महाराष्ट्र
के
सतारा
के
रमेश
पाटिल।
उन्होंने
25
साल
पहले
एलआईसी
की
पॉलिसी
ली
थी।
जब
2025
में
उनकी
बेटी
की
शादी
का
समय
आया,
तो
वही
पॉलिसी
उनके
लिए
वरदान
साबित
हुई।
“कंपनियाँ
आती
जाती
हैं,
पर
एलआईसी
हमेशा
साथ
देती
है,”
रमेश
मुस्कुराते
हुए
कहते
हैं।
इसी
भरोसे
की
जड़ें
बहुत
गहरी
हैं।
आज़ादी
के
बाद
जब
देश
का
वित्तीय
ढांचा
बन
रहा
था,
तब
1956
में
एलआईसी
की
स्थापना
हुई।
उसने
तब
से
लेकर
अब
तक
हर
आर्थिक
संकट,
हर
सरकार
और
हर
बदलते
दौर
में
लोगों
का
पैसा
सुरक्षित
रखा
है।
1991
के
आर्थिक
सुधार
हों
या
कोविड-19
महामारी,
एलआईसी
ने
हमेशा
अपनी
साख
बनाए
रखी।
एलआईसी
सिर्फ़
बीमा
नहीं
बेचती
—
वह
भरोसा
बेचती
है।
हर
गाँव
में
उसका
एजेंट
परिवार
का
सदस्य
जैसा
बन
जाता
है।
शायद
इसी
वजह
से
आज
भी
भारत
में
30
करोड़
से
ज़्यादा
पॉलिसियाँ
सक्रिय
हैं
—
यह
किसी
निजी
कंपनी
के
लिए
असंभव
आँकड़ा
है।
जब
वॉशिंगटन
पोस्ट
जैसी
विदेशी
मीडिया
ने
अक्टूबर
2025
में
एलआईसी
पर
अडाणी
समूह
को
मदद
पहुँचाने
का
आरोप
लगाया,
तो
लोगों
ने
इस
ख़बर
पर
हँसी
में
प्रतिक्रिया
दी।
उन्हें
पता
था
कि
एलआईसी
का
निवेश
नीति
के
दायरे
में,
पूरी
जाँच-पड़ताल
के
बाद
होता
है।
और
जब
एलआईसी
ने
बताया
कि
अडाणी
निवेश
उसके
कुल
पोर्टफोलियो
का
1%
से
भी
कम
है
—
और
उस
पर
उसे
120%
का
मुनाफ़ा
हुआ
है
—
तो
लोगों
का
भरोसा
और
मजबूत
हो
गया।
ऐसे
समय
पर
जब
भारत
में
बिहार
विधानसभा
चुनाव
के
चलते
लोकतंत्र
का
उत्सव
चल
रहा
है,
वॉशिंगटन
पोस्ट
जैसी
संस्थाओं
की
बिना
आधार
वाली
रिपोर्टें
उन
पत्रकारों
की
LIC
पर
हमले
की
एक
सोची
समझी
रणनीति
लगती
हैं,
जिनके
राजनीतिक
संरक्षक
जनता
का
विश्वास
खो
चुके
हैं
और
चुनावों
में
लगातार
नाकाम
रहे
हैं।
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