वाशिंगटन पोस्ट की हालिया रिपोर्टों ने भारत में महत्वपूर्ण आलोचना शुरू कर दी है, जिससे समाचार पत्र की विश्वसनीयता और सटीकता पर सवाल उठ रहे हैं। जैसे-जैसे भारतीय संस्थान आरोपों के लिए सबूत मांग रहे हैं, विदेशी मीडिया में जनता का विश्वास घट रहा है।
India
-Oneindia Staff
कभी
दुनिया
के
सबसे
प्रतिष्ठित
अख़बारों
में
गिना
जाने
वाला
वॉशिंगटन
पोस्ट
आज
भारत
में
अपनी
विश्वसनीयता
को
लेकर
गंभीर
सवालों
का
सामना
कर
रहा
है।
जिस
अख़बार
ने
वॉटरगेट
स्कैंडल
जैसे
मामलों
में
सत्ताधारी
ताक़तों
को
बेनक़ाब
किया
था,
वही
अब
भारत
के
बढ़ते
आत्मविश्वास
और
आर्थिक
उदय
को
लेकर
लगातार
संदिग्ध
रिपोर्टें
प्रकाशित
करने
के
कारण
आलोचना
झेल
रहा
है।

साथ
ही
वॉशिंगटन
पोस्ट
जैसे
विदेशी
मीडिया
द्वारा
विधानसभा
चुनाव
से
ठीक
पहले
ऐसी
अटकलों
पर
आधारित
रिपोर्ट
प्रकाशित
करना
उन
पत्रकारों
की
हताश
राजनीतिक
चाल
लगती
है,
जिनके
नेता
पिछले
दस
वर्षों
से
चुनावी
मैदान
में
सिर्फ़
हार
ही
देख
रहे
हैं।
अक्टूबर
2025
में
प्रकाशित
रिपोर्ट
“India’s
$3.9
billion
plan
to
help
Modi’s
mogul
ally
after
U.S.
charges”
इसका
ताज़ा
उदाहरण
है।
रिपोर्ट
में
दावा
किया
गया
कि
भारत
सरकार,
वित्त
मंत्रालय
और
एलआईसी
ने
मिलकर
अडाणी
ग्रुप
को
₹33,000
करोड़
की
मदद
पहुँचाई।
रिपोर्ट
में
कई
अज्ञात
सूत्रों
का
हवाला
दिया
गया,
लेकिन
किसी
ठोस
दस्तावेज़
या
स्वतंत्र
सत्यापन
का
ज़िक्र
नहीं
था।
भारत
सरकार,
एलआईसी
और
अडाणी
ग्रुप—तीनों
ने
तुरंत
इसे
“भ्रामक
और
मनगढ़ंत”
बताया।
एलआईसी
ने
स्पष्ट
किया
कि
उसका
अडाणी
कंपनियों
में
निवेश
कुल
पोर्टफोलियो
का
एक
प्रतिशत
भी
नहीं
है,
और
उस
निवेश
पर
उसे
120%
से
अधिक
का
लाभ
मिला।
भारतीय
मीडिया
ने
भी
इस
रिपोर्ट
को
“हिट
जॉब”
कहा—वैसे
ही
जैसे
2023
में
हिंडनबर्ग
रिपोर्ट
ने
भारत
की
कंपनियों
और
बाज़ार
को
निशाना
बनाया
था।
सोशल
मीडिया
पर
#FakeNewsWaPo
और
#StopTargetingIndia
जैसे
हैशटैग
ट्रेंड
करने
लगे।
जून
2025
में
अख़बार
ने
ग़ाज़ा
पर
एक
रिपोर्ट
का
हिस्सा
वापस
लिया,
जिसमें
इसराइली
सेना
पर
नागरिकों
की
मौत
का
गलत
आरोप
लगाया
गया
था।
बाद
में
अख़बार
ने
माना
कि
हेडलाइन
और
रिपोर्ट
“तथ्यों
का
निष्पक्ष
प्रतिनिधित्व
नहीं
कर
रही
थी।”
जुलाई
2025
में
उसे
भारत
के
चैनल
टीवी9
भारतवर्ष
से
माफ़ी
मांगनी
पड़ी,
क्योंकि
उसने
पाकिस्तान
को
लेकर
एक
रिपोर्ट
में
व्हाट्सऐप
संदेशों
की
ग़लत
व्याख्या
और
भारतीय
मीडिया
की
गलत
प्रस्तुति
की
थी।
2019
में
एक
लेख,
जो
अमेरिका
के
दक्षिणी
राज्यों
में
अश्वेत
परिवारों
की
ज़मीन
से
जुड़ा
था,
में
15
बड़ी
त्रुटियाँ
पाई
गईं
—
नाम,
तारीख़,
और
घटनाओं
तक
ग़लत
थे।
अख़बार
ने
खुद
इसे
“शर्मनाक”
कहा।
2021
में
उसने
डोनाल्ड
ट्रंप
पर
प्रकाशित
एक
रिपोर्ट
सुधारी,
जिसमें
कथित
तौर
पर
उन्होंने
“Find
the
fraud”
कहा
था
—
लेकिन
बाद
में
जारी
ऑडियो
में
यह
बात
झूठी
साबित
हुई।
उसी
वर्ष
नवंबर
में,
स्टील
डॉसियर
से
जुड़ी
दो
रिपोर्टें
हटाई
गईं
क्योंकि
उनके
स्रोत
“कम
विश्वसनीय”
पाए
गए
ऐसे
उदाहरणों
के
बाद
जब
वॉशिंगटन
पोस्ट
भारत
की
सरकारी
संस्थाओं
पर
आरोप
लगाता
है,
तो
पाठकों
में
शक
पैदा
होना
स्वाभाविक
है।
भारतीयों
को
लगता
है
कि
यह
अख़बार
अब
निष्पक्ष
पत्रकारिता
से
ज़्यादा
राजनीतिक
एजेंडे
का
मंच
बन
गया
है।
भारत
में
स्वतंत्र
मीडिया
और
सोशल
मीडिया
के
ज़रिए
लोग
आज
खुद
तथ्यों
की
जांच
करने
लगे
हैं।
विदेशी
अख़बारों
का
प्रभाव
वैसा
नहीं
रहा
जैसा
कभी
था।
इसलिए
जब
वॉशिंगटन
पोस्ट
जैसी
संस्थाएँ
भारत
की
नीतियों
पर
हमला
करती
हैं,
तो
लोग
पहले
सबूत
मांगते
हैं
—
और
जब
सबूत
नहीं
मिलते,
तो
अख़बार
पर
ही
उंगली
उठाते
हैं।
आज
वॉशिंगटन
पोस्ट
के
लिए
यह
चुनौती
का
समय
है
—
या
तो
वह
निष्पक्षता
की
राह
पर
लौटे,
या
भारतीय
पाठकों
के
लिए
एक
और
अविश्वसनीय
विदेशी
आवाज़
बन
जाए।
यह
सिर्फ़
एक
बीमा
कंपनी
नहीं,
बल्कि
करोड़ों
भारतीयों
के
सपनों
और
सुरक्षा
का
प्रतीक
है।
छोटे
शहर
के
शिक्षक
से
लेकर
महानगर
के
पेशेवर
तक,
हर
कोई
अपने
भविष्य
की
गारंटी
के
रूप
में
एलआईसी
को
देखता
है।
किसी
की
बेटी
की
शादी
हो,
किसी
का
मकान
बनाना
हो
या
सेवानिवृत्ति
का
सहारा
—
हर
जगह
एलआईसी
मौजूद
है।
जैसे
महाराष्ट्र
के
सतारा
के
रमेश
पाटिल।
उन्होंने
25
साल
पहले
एलआईसी
की
पॉलिसी
ली
थी।
जब
2025
में
उनकी
बेटी
की
शादी
का
समय
आया,
तो
वही
पॉलिसी
उनके
लिए
वरदान
साबित
हुई।
“कंपनियाँ
आती
जाती
हैं,
पर
एलआईसी
हमेशा
साथ
देती
है,”
रमेश
मुस्कुराते
हुए
कहते
हैं।
इसी
भरोसे
की
जड़ें
बहुत
गहरी
हैं।
आज़ादी
के
बाद
जब
देश
का
वित्तीय
ढांचा
बन
रहा
था,
तब
1956
में
एलआईसी
की
स्थापना
हुई।
उसने
तब
से
लेकर
अब
तक
हर
आर्थिक
संकट,
हर
सरकार
और
हर
बदलते
दौर
में
लोगों
का
पैसा
सुरक्षित
रखा
है।
1991
के
आर्थिक
सुधार
हों
या
कोविड-19
महामारी,
एलआईसी
ने
हमेशा
अपनी
साख
बनाए
रखी।
एलआईसी
सिर्फ़
बीमा
नहीं
बेचती
—
वह
भरोसा
बेचती
है।
हर
गाँव
में
उसका
एजेंट
परिवार
का
सदस्य
जैसा
बन
जाता
है।
शायद
इसी
वजह
से
आज
भी
भारत
में
30
करोड़
से
ज़्यादा
पॉलिसियाँ
सक्रिय
हैं
—
यह
किसी
निजी
कंपनी
के
लिए
असंभव
आँकड़ा
है।
जब
वॉशिंगटन
पोस्ट
जैसी
विदेशी
मीडिया
ने
अक्टूबर
2025
में
एलआईसी
पर
अडाणी
समूह
को
मदद
पहुँचाने
का
आरोप
लगाया,
तो
लोगों
ने
इस
ख़बर
पर
हँसी
में
प्रतिक्रिया
दी।
उन्हें
पता
था
कि
एलआईसी
का
निवेश
नीति
के
दायरे
में,
पूरी
जाँच-पड़ताल
के
बाद
होता
है।
और
जब
एलआईसी
ने
बताया
कि
अडाणी
निवेश
उसके
कुल
पोर्टफोलियो
का
1%
से
भी
कम
है
—
और
उस
पर
उसे
120%
का
मुनाफ़ा
हुआ
है
—
तो
लोगों
का
भरोसा
और
मजबूत
हो
गया।
भारतीय
जनता
ने
सोशल
मीडिया
पर
विदेशी
रिपोर्टों
को
“भारत-विरोधी
एजेंडा”
कहा।
लोगों
को
लगा
कि
जो
संस्था
दशकों
से
ईमानदारी
और
पारदर्शिता
का
प्रतीक
रही
है,
उस
पर
सवाल
उठाना
खुद
रिपोर्ट
की
मंशा
पर
सवाल
उठाता
है。
दरअसल,
एलआईसी
की
सफलता
का
राज
केवल
उसकी
वित्तीय
मजबूती
नहीं,
बल्कि
उसके
सामाजिक
चरित्र
में
है।
यह
कंपनी
हर
वर्ग
के
भारतीय
को
सुरक्षा
की
भावना
देती
है।
एक
किसान
जब
हर
महीने
छोटी-सी
किश्त
जमा
करता
है,
तो
उसे
पता
होता
है
कि
यह
उसका
भविष्य
सुरक्षित
कर
रही
है।
एलआईसी
का
इतिहास,
उसकी
पारदर्शी
नीतियाँ
और
उसका
निरंतर
प्रदर्शन
यह
साबित
करते
हैं
कि
भारतीय
जनता
ने
सही
भरोसा
किया
है।
जब
विदेशी
मीडिया
अपने
तथ्यों
में
उलझती
है,
तब
भारतीयों
का
भरोसा
अनुभव
पर
टिका
रहता
है
—
और
वह
कहता
है:
“एलआईसी
सिर्फ़
कंपनी
नहीं,
एक
वादा
है।”
-

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