प्रसिद्ध मूर्तिकार और दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के शिल्पकार राम वनजी सुतार का बुधवार देर रात नोएडा स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। उनके निधन के साथ ही भारतीय कला जगत का एक ऐसा अध्याय समाप्त हो गया, जिसने आकार, विचार और इतिहास को मूर्त रूप देने का काम किया।
नोएडा स्थित अपने विशाल स्टूडियो में राम वी. सुतार जब कभी अपने आसन पर बैठते थे, तो वह सिर्फ एक कलाकार नहीं, बल्कि सतत संघर्ष और साधना का प्रतीक दिखाई देते थे। दशकों तक कला के क्षेत्र में उनकी यात्रा आसान नहीं रही। सीमित संसाधनों, बदलते समय और कला के प्रति घटते धैर्य के बीच उन्होंने लगभग एकाकी होकर अपनी राह बनाई। उम्र के नौ दशक पार कर लेने के बाद भी उनके भीतर सृजन की ऊर्जा और संकल्प जीवित रहा।
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राम सुतार की मूर्तिकला की दुनिया महापुरुषों से भरी रही। महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल, दीन दयाल उपाध्याय, छत्रपति शिवाजी महाराज उनकी कृतियों में इतिहास, विचार और राष्ट्र की आत्मा एक साथ सांस लेते नजर आते हैं। अयोध्या के राम मंदिर में कांसे से बनी 300 फीट ऊंची जटायु की कुबेर टीला पर स्थापित की गई है मूर्ति है, सुतार ने ही बनाई। संसद परिसर में स्थापित गांधी की ध्यानमग्न प्रतिमा हो या घोड़े पर सवार शिवाजी महाराज की भव्य आकृति, हर रचना में उन्होंने व्यक्तित्व से पहले विचार को उकेरा।

उनकी रचनात्मक यात्रा में महात्मा गांधी सबसे बड़ा प्रेरणा स्रोत रहे। गांधी के माध्यम से ही उनकी कला ने देश की सीमाओं को पार किया और वैश्विक पहचान बनाई। लेकिन आज की पीढ़ी उन्हें सबसे अधिक सरदार वल्लभभाई पटेल की स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के शिल्पकार के रूप में जानेगी। गुजरात में स्थापित 182 मीटर ऊंची यह प्रतिमा न केवल दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है, बल्कि आधुनिक भारत की सामूहिक इच्छाशक्ति, तकनीकी क्षमता और सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रतीक भी है। जानिए कौन थे राम वी. सुतार और कैसा रहा उनका जीवन…..

अमर उजाला को साल 2018 में दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने हंसते हुए कहा था कि ‘आज भी गांधी मेरे लिए एक सपने की तरह हैं।’ उनसे मिलना लगभग एक सदी से मिलने जैसा है। 1925 में महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव गोंडूर में पैदा हुए राम वी. सुतार ने स्कूल के दिनों में ही पहली बार जिस गांधी को बनाया था, वह हंसते हुए गांधी थे। पुरानी बात जब खुलती थी तो उनके चेहरे पर एक आत्मविश्वास उतर आता था-“मेरे पास गांधी की एक तस्वीर थी। उसमें वे हंस रहे थे। मेरे एक टीचर को गांधी का बस्ट चाहिए था। मैंने बनाया। फिर उस बस्ट की एक और कॉपी भी बनाई। उस समय मुझे 300 रुपये मिले थे।” स्कूल के बाद जब वे मुंबई के ‘जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट’ में मूर्तिशिल्प के छात्र हुए तो उनकी कला की दुनिया बड़ी होती गई।
उनकी कला का आकार भी बड़ा होता गया। कुछ छोटे-बड़े काम और एलोरा में पुरातत्व विभाग की नौकरी के बाद लगभग 1959 में सुतारजी दिल्ली आए तो गांधी को देखने, समझने और महसूस करने के कई दरवाजे खुले। वे कहते थे “दुनिया के किसी भी हिस्से में सत्य और अहिंसा का जिक्र महात्मा गांधी को याद किए बिना पूरा नहीं होता। मुझे गांधीजी के अहिंसा मंत्र ने बहुत प्रभावित किया। गांधी जी के दर्शन में हर समस्या का आसान उपाय है। वह बेहद प्रैक्टिकल हैं। उनके दर्शन की जो भाषा है, उसे समझना आसान है।”
गांधी के दर्शन और सुतार के मूर्तिशिल्प की भाषा में साम्य
लेकिन क्या गांधी के दर्शन और राम वी. सुतार के मूर्तिशिल्प की भाषा में कोई साम्य था? गांधी को बनाना क्या आसान था? गांधी को आकारों में ढालते वक्त दिमाग में क्या चलता रहता था? सवाल कई थे। सुतार ने कहा था “सच कहूं तो गांधी को आकारों में ढालना एक तपस्या है मेरे लिए। जब भी मैंने उनके रूप को बनाया, उनकी कही बातें मेरे दिमाग में चलती रहीं। जब भी बनाया, निष्ठा और आस्था से बनाया। उनके जीवन में आपकी आस्था न हो तो आप गांधी बना ही नहीं सकते। बिना आस्था के आपकी कला में जीवंतता नहीं आ सकती। अब मूर्तिशिल्प की भाषा और उनके दर्शन में क्या साम्य है, यह देखना आपका काम है। दर्शकों का काम है।”
ऐसी बातों पर वे मुस्कुराते थे, वो कहते थे ”गांधी हम सब की जरूरत हैं। उनके यहां लगाव और अलगाव का एक बेहतर मिश्रण है। पिछले कई दशकों में हमारे संघर्ष, सामाजिक चेतना, विद्रोहशीलता, शांति पर जोर, मानवता आदि की जो दुनियाभर में पहचान बनी है, उसके पीछे बहुत बड़ा हाथ गांधी के विचारों का है। हमें सांस्कृतिक रूप से साक्षर बनाने में भी उनके दर्शन का बड़ा योगदान है। उनके जाने के बाद जो जगह खाली है, वह सचमुच खाली है। उसे भरने के लिए कोई क्यू में भी नहीं खड़ा है। वह जगह एक तरह से हमेशा खाली रहेगी।”